शहर अब एक आधुनिक यूटोपिया नहीं रह गया है. भले ही अभी भी शहरी भारत के अनेक हिस्सों में औपनिवेशिक कल्पना में रचे-बसे “गोरे कस्बे” या आधुनिक आर्किटेक्ट के सपनों वाले “जगमगाते शहर” देखने को मिल जाएँ. लेकिन उनकी चमक कब की फीकी पड़ चुकी है. आम जन के लिए ऐसी जगहें रहने के लायक तभी बन पाती हैं जब इनकी गलियों और नुक्कड़ों में ज़रूरी छाँह और ओट मिलती हो. ताकि विकास के नाम पर आने वाली जिस आधुनिकता में निजता के लिए कोई जगह नहीं बचती, और जिसकी चकाचौंध आँखों को अंधी कर देती है, उससे वहाँ रहने वालों को छुटकारा मिल सके. इन सब बदलावों के बीच, शहर की बेतरतीब बनावट, बिगड़ी हुई आबोहवा, और बेपनाह आबादी के नतीजे में एक ऐसा डरावना भविष्य सामने आ रहा है जिसमें यह दुनिया “झुग्गी बस्तियों की दुनिया” बन जाएगी. लेकिन ऐसा नहीं है कि उत्तर-औपनिवेशिक शहर सिर्फ़ अतीत के बोझ से दबी हुई एक डरावनी और अजनबी जगह है. यह संभावनाओं का एक ठिकाना भी है, जिसे मुमकिन बनाते हैं यहाँ बनने वाले वे सामुदायिक रिश्ते और कानून का लचीलापन, जिससे शहर ढंग से रहने लायक एक जगह बन पाता है. इन्हीं के चलते शहर, राष्ट्र और आधुनिकता की बोझिल सीमाओं के बाहर जाकर रचनात्मक चाहतों का एक मुकाम बन जाता है.
इस उत्तर-औपनिवेशिक शहर में रचनात्मकता की इन्हीं अपार संभावनाओं को तलाशते हुए केएनएमए (KNMA) अपने संग्रह में से कुछ चुनी हुई कृतियाँ पेश कर रहा है. जैसा कि ये कलाकृतियाँ दिखाती हैं कि शहर कोई अलग-थलग, पराई जगह नहीं है, बल्कि अपने में सराबोर कर लेने वाली एक जानदार दुनिया है. शहर मांग करता है कि अनेक स्तरों पर जीवन और राजनीति की हिस्सेदारी हो. क्यूरेशन के नज़रिए के मुताबिक, कलाकृतियों को विषय के आधार पर अलग-अलग समूहों में रखा गया है. एक समूह में भारतीय शहर को एक उदास खंडहर के रूप में दर्शाया गया है, इसमें राम कुमार का बिखरता हुआ बनारस, बिकास भट्टाचार्जी का 1970 के नक्सल दशक का कलकत्ता, और गुलाममोहम्मद शेख का राख हो चुका ऐतिहासिक अहमदाबाद शामिल है, जिसको सांप्रदायिक दंगों ने तबाह कर दिया था. आधुनिकता की लावारिस परियोजनाओं और मलबे को हम दूसरी किस्म की कृतियों में देखते हैं, जिनमें शेबा छाछी की जीवाश्म बनती जा रही नहरों का नक्शा है, अतुल भल्ला के गटर के फोटोग्राफ हैं, और सुधीर पटवर्धन के रचे हुए शहर हैं. पटवर्धन की तस्वीरें, छवियाँ बनाने के नियमों-परंपराओं को तोड़ कर उनसे आगे जाती हैं. हेमा उपाध्याय की टिन की चमकदार छतों वाली फटेहाल बस्तियाँ, विवान सुंदरम के बेढंगे ‘मास्टरप्लान’ और नटराज शर्मा की कंकालनुमा इमारतें शहर के एक ऐसे रूप को ही विस्तार देती हैं जो ‘बेकार की चीज़ों’ से भरा है. ऐसा शहर जो इसका सबूत है कि शहरीकरण किस क़दर नाकाम रहा.
शहरों के ये क़िस्से रोज़मर्रा की बातें भी बताते हैं, इनमें तीसरी दुनिया के महानगरों में रहने वालों के सपनों और डर की कहानियाँ हैं. यह यथार्थ को डरावने ढंग से पेश करने वाला एक ऐसा रंगमंच है जहाँ सामूहिक कल्पनाएँ और निजी चिंताएँ अपने खेल खेलती हैं. जहाँ पूजा इरन्ना के स्टेपल पिनों से बने नाजुक इमारती मॉडल आकार लेते हैं. जहाँ रतिन बर्मन के कंक्रीट ब्लॉक्स में एक प्रवासी मज़दूर की असहनीय चुप्पियाँ बयान होती हैं. और जहाँ नलिनी मलानी के डरावने यूटोपिया को रंग-रूप हासिल होता है. जगन्नाथ पांडा, प्रतुल दाश, ध्रुव मलहोत्रा, और राक़िब शॉ रात में डूबी एक ऐसी दुनिया की पनाह लेते हैं, जिसमें बेढंगापन भी है और मस्ती भी, निराशा भी है और अपार ख़ुशी भी. यह कृतियाँ वाल्टर बेंजामिन के इस विचार को मजबूती देती हैं कि शहर एक ऐसा ठिकाना है जहाँ अकेलापन है, बदहवासी है, लेकिन जहाँ हैरान कर देने वाली कल्पनाओं का एक सिलसिला भी है. इसी सिलसिले में, हम भुपेन खखर की दर्ज़ी की दुकान में लालसा और कल्पना की एक रंगीन कहानी से रू ब रू होते हैं.
आख़िर में, आशिम पुरकायस्थ और अनिता दुबे के इन्सटॉलेशंस क्रमश: दिखाते हैं कि कैसे शहरी खंडहर पनाह दे सकते हैं, या स्वतंत्रता की निशानियाँ बन सकते हैं. यहीं पर हमने अपनी बात पूरी करते हुए एक पोस्टस्क्रिप्ट में अपने नज़रिए को एक दिशा दी है. यह पोस्टस्क्रिप्ट इसके बारे में है कि शहर और इसकी मज़दूर दुनिया में संकट से मुक्ति दिलाने की कैसी क्षमताएँ हैं. दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवा उद्योग में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों को निलिमा शेख की श्रद्धांजली, और जयश्री चक्रवर्ती के राहत पहुंचाते आर्काइव्स मौजूदा हालात में ख़ास तौर से प्रासंगिक हो गए हैं. वे बताते हैं कि कैसे उत्तर-औपनिवेशिक शहर अपनी सारी डरावनी हक़ीक़त के बावजूद, अभी भी अपने वजूद के लिए इंसानियत से ही उम्मीद रखता है. वे इशारा करते हैं कि इसके बदले में शहर को अपने वजूद की हिफ़ाज़त के लिए किनसे उम्मीद रखनी चाहिए और किस दिशा में बढ़ना चाहिए.