‘मैं ख़ुद को कुछ-कुछ एक पेंटर-पत्रकार के रूप में देखता हूँ, जो रंग और कैनवस का उपयोग उसी तरह करता है जैसे एक फोटो-पत्रकार अपने कैमरे का करता है’. – भट्टाचार्जी के इन शब्दों की गूंज को कलकत्ता शहर की ख़ौफ़नाक हक़ीक़त को दिखाती उनकी कृति में सुना जा सकता है. उनकी पेंटिंग राष्ट्रीय आपातकाल (1975-77) के दमघोंटू वर्षों का एक दस्तावेज़ है जो हक़ीक़त और डरावने सपनों के बीच मिटते हुए फ़र्क़ को दिखाती है.
एकल रंग, तीखे अंधेरे और प्रकाश वाले कीआरस्क्युरो प्रभाव और एक डरावना माहौल, सब मिला कर एक बेचैन कर देने वाला यथार्थवाद निर्मित करते हैं. आतंक में डूबे हुए शहर में हिंसा और इसके नतीजे को सड़क पर पड़े मानव मस्तकों, आवक्ष शरीरों और बेजान अंगों से दर्शाया गया है. उनके चारों तरफ़ हैं धुएँ में घिरी हुई, बर्बाद होती इमारतें.
वीरान सड़क पर एक अकेली बिल्ली और लैंपपोस्ट की छाया एक मुर्दा शांति को दिखाती है और ख़तरे से भरे हुए एक परिवेश के संकेत देती है.